वैदिक काल Vedic period ( वैदिक सभ्यता Vedic Civilization )
वैदिक सभ्यता Vedic Civilization
वैदिक काल Vedic Civilization का विभाजन दो भागों में किया गया है
(a) ऋग्वैदिक काल Rigvedic Period– इसे 1500 ई. पू.- 1000 ई. पू. माना गया है।
(b) उत्तर वैदिक काल Post vedic period– इसे 1000 ई. पू.- 600 ई. पू. माना गया है।
- मैक्स मूलर ने आर्यों का मूल निवास स्थान मध्य एशिया को माना है।
- भारत में आर्य सर्वप्रथम ‘सप्तसिन्धु’ क्षेत्र में बसे। यह क्षेत्र आधुनिक पंजाब तथा उसके आस-पास का क्षेत्र था।
आर्यों का मूल निवास
आर्यों का मूल निवास | विद्वान का नाम |
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1. मध्य एशिया (Central Asia) | प्रो. मैक्स मूलर |
2. उत्तर ध्रुव (Arctic Region) | बाल गंगाधर तिलक |
3. ऑस्ट्रो-हंगरी (Austro-Hangarian Region) | प्रो. मैकडोनाल्ड |
4. सप्त सिन्धु प्रदेश (Sapta-Sindhu Region) | डॉ. अविनाश चन्द्र दास |
5. जर्मनी के मैदानी भाग (German Plains) | प्रो. पेन्का |
6. तिब्बत (Tibet) | दयानन्द सरस्वती |
7. दक्षिण रूस (Southern Russia) | प्रो. गार्डन चाइल्ड |
ऋग्वैदिक काल Rigvedic Period
- ऋग्वैदिक आर्य कई छोटे-छोटे कबीलों में विभक्त थे।
- ऋग्वैदिक साहित्य में कबीले को ‘जन’ कहा गया है।
- कबीले के सरदार को ‘राजन’ कहा जाता था, जो शासक होते थे।
- सबसे छोटी राजनीतिक इकाई कुल या परिवार थी, कई कुल मिलकर ग्राम बनते थे जिसका प्रधान ‘ग्रामणी’ होता था, कई ग्राम मिलाकर ‘विश’ होता था, जिसका प्रधान ‘विशपति’ होता था तथा कई “विश’ मिलकर ‘जन’ होता था जिसका प्रधान ‘राजा’ होता था।
- ऋग्वेद में ‘जन’ का 275 बार तथा ‘विश’ का 170 बार उल्लेख हुआ है।
- ‘सभा’, ‘समिति’ एवं ‘विदथ’ राजनीतिक संस्थाएँ थीं। परिवार पितृसत्तात्मक था।
- समाज में वर्ण-व्यवस्था कर्म पर आधारित थी। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के ‘पुरुष सूक्त’ में चार वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र; का उल्लेख है।
- ‘सोम’ आर्यों का मुख्य पेय था तथा ‘यव’ (जौ) मुख्य खाद्य पदार्थ।
- समाज में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी।
- इस समय समाज में ‘विधवा विवाह’, ‘नियोग प्रथा’ तथा ‘पुनर्विवाह’ का प्रचलन था लेकिन ‘पर्दा प्रथा’, ‘बाल-विवाह’ तथा ‘सती–प्रथा’ प्रचलित नहीं थी।
ऋग्वैदिककालीन नदियाँ
प्राचीन नाम | आधुनिक नाम |
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कुभु | कुर्रम |
सुवास्तु | स्वात् |
कुभा | काबुल |
गोमती | गोमल |
वितस्ता | झेलम |
परुषणी | रावी |
विपाशा | व्यास |
दृषद्वती | घग्घर |
अस्किनी | चिनाव |
शतुद्रि | सतलुज |
सदानीरा | गण्डक |

- ऋग्वैदिक काल के देवताओं में सर्वाधिक महत्व ‘इन्द्र’ को तथा उसके उपरान्त ‘अग्नि’ व ‘वरुण’ को महत्व प्रदान किया गया था।
- ऋग्वेद में इन्द्र को ‘पुरन्दर’ अर्थात् ‘किले को तोड़ने वाला’ कहा गया है। ऋग्वेद में उसके लिए 250 सूक्त हैं।
उत्तर वैदिक काल Post vedic period
- उत्तर वैदिक काल के राजनीतिक संगठन की मुख्य विशेषता बड़े राज्यों तथा जनपदों की स्थापना थी।
- राजत्व के ‘दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त’ का सर्वप्रथम उल्लेख ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में किया गया है।
- इस काल में राजा का महत्व बढ़ा। उसका पद वंशानुगत हो गया।
- उत्तर वैदिक काल में परिवार पितृसत्तात्मक होते थे। संयुक्त परिवार की प्रथा विद्यमान थी।
- समाज स्पष्ट रूप से चार वर्णों; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र; में बँटा था। वर्ण व्यवस्था कर्म के बदले जाति पर आधारित थी।
- स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्हें धन सम्बन्धी तथा किसी प्रकार के राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे।
- ‘जाबालोपनिषद्’ में सर्वप्रथम चार आश्रमों; ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास; का विवरण मिलता है। •
- धार्मिक एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों में जटिलता आई।
- इस काल में सबसे प्रमुख देवता प्रजापति (ब्रह्मा), विष्णु एवं रुद्र (शिव) थे।
- लोहे के प्रयोग का सर्वप्रथम साक्ष्य 1000 ई. पू. उत्तर प्रदेश के अतरन्जीखेड़ा (उत्तर प्रदेश) से मिला है।
आश्रम Hermitage
‘श्रम’ ‘Labour’
धातु से व्युत्पन्न आश्रम शब्द का अर्थ परिश्रम अथवा उद्योग करन से है। इस प्रकार आश्रम में स्थान हैं जहाँ कुछ समय ठहरकर मनुष्य कुछ आवश्यक गुणों का विकास करता है और आगे की यात्रा के लिये तैयार होता है। डॉ. प्रभु ने आश्रमों को जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति – की यात्रा में विश्राम स्थल बताया है। मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानकर उसे 4 आश्रमों में विभाजित किया गया। प्रत्येक आश्रम की अवधि 25 वर्ष निर्धारित की गई। ये 4 आश्रम हैं- ब्रह्मचर्य आश्रम, ग्रहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, संन्यास आश्रम ।
ब्रह्मचर्य आश्रम Brahmacharya Ashram
यह जीवन की तैयारी, प्रशिक्षण, अध्ययन एवं अनुशासन का काल है। इस अवस्था में युवक अपनी सारी शक्ति का संचय करते हुये, विषय-वासना से दूर रहकर श्रम एवं साधनामय जीवन व्यतीत करता था। इस आश्रम का मुख्य उद्देश्य बालक को स्वावलंबी बनाना और गृहस्थ जीवन के लिये प्रशिक्षित करना था।
गृहस्थ आश्रम Grihastha Ashram
इस आश्रम में व्यक्ति धार्मिक एवं सामाजिक दायित्वों को पूरा करने की ओर अग्रसर होता है। इस आश्रम का प्रारम्भ विवाह के बाद होता है। इस आश्रम में मनुष्य संतानोत्पत्ति अतिथि यज्ञ का संपादन, अग्निहोत्र का संपादन, अर्थवृद्धि, याज्ञिक संस्कारों का संपादन आश्रम वासियों की सुरक्षा तथा दान पुण्य का कार्य करता था। इसी आश्रम में व्यक्ति तीन ऋण से मुक्ति और पंच महायज्ञ का संपादन करता था।
तीन ऋण Three debts
1. देव ऋण : विभिन्न धार्मिक और याज्ञिक अनुष्ठानों द्वारा मुक्ति
2. ऋणि ऋण : वेदों के विधिपूर्वक अध्ययन द्वारा मुक्ति
3. पितृ ऋण : धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति द्वारा मुक्ति
पंच महायज्ञ Panch Mahayagya
1. देव यज्ञ Dev Yagna : यज्ञ के दौरान अग्नि में आहूति देना
2. पितृ यज्ञ Pitra Yajna : पितरों का तर्पण, सम्मान
3. नृ (अतिथि) यज्ञ Nr (guest) Yajna : अथितियों का समुचित सत्कार
4. भूत यज्ञ Bhoot yajna : जीवधारियों का पालन |
5. ब्रह्म यज्ञ Brahma Yajna : वेदशास्त्रों का अध्ययन और स्वाध्याय
वानप्रस्थ आश्रम Vanaprastha Ashram
50 वर्ष की अवस्था में मनुष्य का | प्रवेश वानप्रस्थ आश्रम में होता था। इस आश्रम के अंतर्गत | व्यक्ति का उद्देश्य धर्म एवं मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रयास करना था। इस आश्रम में प्रवेश के बाद मनुष्य काम एवं अर्थ से | मुक्ति पा लेता था।
संन्यास आश्रम Sannyas ashram
व्यक्ति के जीवन की 75 वर्ष से 100 | वर्ष के बीच की अवधि संन्यास आश्रम के लिये थी। इस आश्रम में मनुष्य धर्म, अर्थ काम के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील होते थे और वन में रहते थे।
पुरुषार्थ Efforts
पुरुषार्थ दो शब्दों पुरुष और अर्थ से मिलकर बना है जिसका अर्थ है विवेकशील प्राणी का लक्ष्य । पुरुषार्थ का एक अर्थ उद्योग अथवा प्रयत्न करने से भी है, अर्थात अपने अभीष्ट | (मोक्ष) को प्राप्त करने के लिये उधम करना। पुरुषार्थ 4 हैंधर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।।
धर्म : religion
व्यक्ति को कर्त्तव्य मार्ग पर आगे बढ़ने और अपने | दायित्वों का निर्वाह करने की प्रेरणा देता है। धर्म ही मनुष्य | तथा समाज के अस्तित्व को अक्षुण्ण रखता है। प्रत्येक आश्रम | में व्यक्ति को धर्म के अनुरूप कार्य करने को कहा गया है।
अर्थ : Meaning
इसका प्रयोग व्यापक अर्थ में किया गया हैं अर्थ | भौतिक सुखों की सभी आवश्यकताओं और साधनों का द्योतक है। इसके अंतर्गत वार्ता (कृषि, पशुपालन, वाणिज्य) तथा राजनीति को भी सम्मिलित किया गया है।
काम : work
इसका तात्पर्य उन सब इच्छाओं से है जिनकी | पूर्ति करके मनुष्य सांसारिक सुख प्राप्त करता है। भारतीय धर्म दर्शन में काम का मुख्य उद्देश्य संतानोत्पत्ति द्वारा वंश वृद्धि करना माना गया है।
मोक्ष : Salvation
इसका तात्पर्य हृदय की अज्ञानता का नाश करके | जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना। इसका संबंध आत्मा | से है। बौद्ध दर्शन में इसे निर्वाण और जैन दर्शशन में इसे कैवल्य कहा गया है।
संस्कार sacraments
संस्कार का शाब्दिक अर्थ ‘शुद्धता’ अथवा ‘परिष्कार’ से है। इनका मुख्य उद्देश्य अशुभ शक्तियों के प्रभाव से व्यक्ति को बचाना है। इसके भौतिक उद्देश्य में सांसारिक समृद्धि प्रापत करना प्रमुख | है। यद्धपि वैदिक साहित्य में संस्कारों का विधिवत उल्लेख नहीं है, | फिर भी यह माना जाता है कि इसका उदय उत्तर वैदिक काल में | हो चुका था। संस्कारों का शास्त्रीय विवेचन सर्वप्रथम | ‘वृहदारण्यकोपनिषद्’ से प्राप्त होता है। संस्कारों की संख्या भी अलग-अलग बताई गई है, परंतु अधिकांश विद्वान 16 संस्कारों को ही मान्यता देते हैं। ये 16 संस्कार हैं|
- 1. गर्भाधान
- 2. पुसवन
- 3. सीमन्तोन्नयन
- 4. जात कर्म
- 5. नामकरण
- 6. निष्क्रमण
- 7. अन्नप्राशन
- 8. चौलकर्म
- 9. कर्णवेधन
- 10. विद्यारंभ
- 11. उपनयन
- 12. वेदारंभ
- 13. केशान्त
- 14. समावर्तन
- 15. विवाह
- 16. अंत्येष्टि
(1) गर्भाधान : Conception
उत्तर वैदिक काल में प्रचलित हुये इस संस्कार में संतान प्राप्ति के उद्देश्य से स्त्री के गर्भ में पुरुष बीजारोपण करता था। |
(2) पुंसवन : Pusvan
गर्भाधान से बाद तीसरे माह पुत्र संतान की प्राप्ति के लिय यह संस्कार किया जाता था।
(3) सीमन्तोन्नयन : Marginal promotion
गर्भवती स्त्री की रक्षा के तथा गर्भस्थ शिशु की दीर्घायु के लिये किया जाता था।
(4) जातकर्म : Castration
बालक के जन्म के तुरंत बाद पिता बालक को स्पर्श कर उसके कान में आशीवर्चन बोलता था। इसका उद्देश्य संतान पर पड़ने वाली अनिष्टकारी बाधाओं से बचाना था।
(5) नामकरण : Nomenclature
जन्म के 11वें दिन शिशु का नाम रखा जाता था।
(6) निष्क्रमण : Evacuation
बालक के पहली बार घर से बाहर जाने पर इस संस्कार का आयोजन होता था।
(7) अन्नप्राशन : Annaprashan
इस संस्कार के अंतर्गत पहली बार शिशु को अन्न खिलाया जाता था। यह संस्कार जन्म के 5वें अथवा 6वें माह में किया जाता था।
(8) चौलकर्म (चूड़ाकरण) : Chaulakram (Chudakaran)
शिशु के 1 वर्ष या 3 वर्ष का होने पर इस संस्कार का संपादन होता था जिसमें पहली बार शिशु के बाल काटे जाते थे।
(9) कर्ण वेधन : Aural drilling
शिशु के 3 वर्ष या 5 वर्ष का होने पर उसके कान को छेदा जाता था।
(10) विद्यारंभ : Start
शिशु के 5 वर्ष का होने पर गुरू द्वारा अक्षर ज्ञान कराया जाता था।
(11) उपनयन : Upanayana
इस संस्कार के अंतर्गत बालक गुरू के पास रहकर गुरू, वेद, यम, नियम का व्रत और देवता के सामीप्य के लिये दीक्षित किया जाता था। उपनयन संस्कार ब्राह्मण का 8वें वर्ष में, क्षत्रिय का 11वें वर्ष में, वैश्य का 12वें वर्ष में, किया जाता था। इस संस्कार के बाद व्यक्ति का दूसरा जन्म माना जाता था, इसीलिये उसे द्विज कहा जाता था। शूद्रों एवं महिलाओं के लिये यह संस्कार वर्जित था।
(12) वेदारंभ : Vedambha
उपनयन संस्कार के 1 वर्ष के अंदर इस संस्कार का संपादन होता था जिसमें वेदों का अध्ययन प्रारंभ किया जाता था।
(13) केशान्त : Keshant
गुरु के पास रहते हुए 16 वर्ष की आयु में पहली बार विद्यार्थी की दाढ़ी, मूछ बनवाने पर यह संस्कार संपन्न होता था।
(14) समावर्तन : Inclusion
शिक्षा की समाप्ति पर यह संस्कार संपन्न होता था। इसके बाद वह स्नातक कहलाता था। इस संस्कार की सर्वमान्य आयु 24 वर्ष मानी गई है।
(15) विवाह : marriage
इस आश्रम के बाद ही व्यक्ति गहस्थाश्रम में प्रवेश करता था। इसका उद्देश्य संतानोत्पत्ति था। इस संस्कार के लिये 25 वर्ष की आयु उपर्युक्त मानी गई है। अधिकांश धर्म सूत्रों में 8 प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। ये इस प्रकार हैं
- 1. ब्राह्म : माता-पिता द्वारा उपर्युक्त वर खोज कर उससे अपनी बेटी का विवाह करना।
- 2. दैव : यज्ञकर्ता पुरोहित के साथ कन्या का विवाह।
- 3. आर्ष : कन्या के पिता द्वारा वर से एक गाय और एक बैल या एक जोड़ा बैल लेकर अपनी कन्या का विवाह करना। |
- 4. प्रजापत्य : बिना किसी दान-दहेज के वर को अपनी कन्या सौंपना।
- 5. आसुर : कन्या के पिता द्वारा वर से धन लेकर अपनी कन्या का विवाह करना।
- 6 गांधर्व : माता-पिता की इच्छा से विरुद्ध किया गया प्रेम विवाह।
- 7 राक्षस : कन्या का अपहरण अथवा बलपूर्वक किया गया विवाह।
- 8 पैशाच : सोती हुई नशे में अथवा पागल कन्या को काम-वासना की तृप्ति के लिये अपनाया जाना।
प्रशंसनीय विवाह
ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्रजापत्य विवाह
निंदनीय विवाह
आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच विवाह में तलाक या संबंध विच्छेद संभव था।
(16) अंत्येष्टि : Funerals
व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत परलोक में उसके सुख एवं कल्याण के लिय किया जाने वाला संस्कार था।
महत्वपूर्ण तथ्य
- चतुवर्ण व्यवस्था का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के 10वें मंडल में स्थित ‘पुरुष सूक्त’ में मिलता है।
- इसमें चारो वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से मानी गई है।
- प्रत्येक वर्ण का कार्य निश्चित होने से, कार्य विशेषीकरण (Specialisation) को प्रोत्साहन मिला।
- छान्दोग्य उपनिषद् में केवल ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमों का ही उल्लेख है। पुरुषार्थ आश्रम व्यवस्था के मनोवैज्ञानिक-नैतिक आधार हैं।
- ब्रह्मचारी दो प्रकार के बताये गये हैं- (i) उपकुर्वाण- शिक्षा समाप्ति के उपरांत गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे, (ii) अन्तेवासी या नेष्ठिक- जीवन पर्यन्त गुरु के पास रहते थे।
- महाभारत तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में गृहस्थों के 4 वर्ग बताये गये हैं- (i) कुसूल धान्य, (ii) कुंभ धान्य, (iii) अश्वस्तन, (iv) कपोतीमाश्रित। चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।
- मनु ने व्यक्ति के चारों आश्रमों का पालन क्रम से करने को आवश्यक माना था जबकि याज्ञवल्क्य ने व्यक्ति के लिये ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधे संन्यास आश्रम में जाने को गलत नहीं माना।
- ऋषियों ने चारों पुरुषार्थों की प्रप्ति के लिये ही चतुराश्रम व्यवस्था बनाई थी।
- मोक्ष प्राप्त करना सबके लिये संभव नहीं था। अतः कालांतर में केवल धर्म, अर्थ, काम को त्रिवर्ग कहा गया है।
- गौतम धर्मसूत्र में संस्कारों की संख्या 40, वैरवानस गृहसूत्र में 18, पारस्कर सूत्र में 13, मनु ने 13 और याज्ञवल्क्य ने यह संख्या 12 बताई है।
- गौतम धर्मसूत्र और गृह्यसूत्रों में अंत्येष्टि संस्कार का उल्लेख नहीं है, क्योंकि इसे अशुभ माना जाता था।
- मनुस्मृति में 10 यमों का उल्लेख है- (i) ब्रह्मचर्य, (ii) दया, (iii) ध्यान, (iv) क्षमा, (v) सत्य, (vi) नम्रता, (vii) अहिंसा, (viii) अस्तेय, (ix) मधुर स्वभाव, (x) इंद्रिय दमन । संस्कार व्यक्ति को चरित्रगत दृढ़ता, सामाजिक मूल्यों और आदर्शों का ज्ञान देते थे।
षड्दर्शन एवं उनके रचयिता
दर्शन | रचयिता |
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सांख्य | कपिल |
योग | पतंजलि |
न्याय | गौतम |
पूर्व मीमांसा | जैमिनी |
उत्तर मीमांसा | बादरायण |
वैशेषिक | कणाद या उलूक |